Doctors-strike

आखिर दोषी कौन ? – वीरेन्द्र कुमार लोढ़ा

विचार मंच
VIRENDRA KUMAR LODHA
वीरेन्द्र कुमार लोढ़ा

आज मन बड़ा व्यथित है। पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों पर हमले के पश्चात उनकी हड़ताल। उनके समर्थन में देश भर के डॉक्टरों का विरोध प्रदर्शन, हड़ताल। आखिर यह हो क्या रहा है मेरे भारत देश में। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के एक राज्य पश्चिम बंगाल में सत्ता के मद में चूर सत्तासीन राजनेता और हमलों से आहत राज्य के डॉक्टरों की हड़ताल। परिणामस्वरूप मरीजों को जबर्दस्त परेशानी। आखिर दोषी कौन? क्या कोई डॉक्टर किसी भी मरीज के पूर्ण स्वस्थ हो जाने की गारंटी ले सकता है? धरती का भगवान कहे जाने वाला डॉक्टर क्या वाकई भगवान है? मेरे ख्याल में, हर डॉक्टर अपने पास आए मरीज को पूर्ण स्वस्थ करने के लिए अपने सम्पूर्ण कौशल का उपयोग कर भरसक प्रयास करता है और सफल भी होता है। कई बार मरीज को अन्य रोग विशेषज्ञों को रेफर भी किया जाता है। लेकिन हर केस में यह बात सत्य ही हो जाए यह कहना गलत होगा।

मरीज की बीमारी, उम्र, शारीरिक क्षमता, रोग प्रतिरोधक क्षमता आदि ऐसे कई कारण है जो उपचार के अलावा अन्य कारकों के रूप में मौजूद है। इन सबसे इतर एक और जरूरी बात होती है मरीज द्वारा उपचार लेने में पूर्ण ईमानदारी। डॉक्टर द्वारा अपने मरीज का ईलाज पूर्ण ईमानदारी से करने के बावजूद यदि कोई अनहोनी हो जाए तो उसके लिए उस डॉक्टर को जिम्मेदार मानते हुए हुए मरीज के परिजनों अथवा सरकारी तंत्र द्वारा प्रताड़ित करने अथवा मारपीट करने को कहाँ तक जायज ठहराया जा सकता है? यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि किसी भी डॉक्टर को दोषी नहीं ठहराया जाए तो गलत होगा। लेकिन उसके कृत्य व परिस्थियों का आकलन करना व उसे दोषी मानना, सक्षम अधिकारियों द्वारा किया जाना ही उचित अवश्य होगा। इससे पूर्व भी देश के कई हिस्सों में कई बार ऐसे घटनाक्रम हुए हैं और वर्तमान में कोलकाता में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ है। उपचार के दौरान एक बुजुर्ग की मृत्यु पर भड़के परिजन उपचार करने वाले डॉक्टर के साथ मारपीट करने लगे। यही नहीं इसे राजनीतिक रंग देते हुए इस तरह भड़काया गया कि एक वर्ग विशेष सभी डॉक्टरों के विरुद्ध हो गई और सरकार मूक दर्शक कि भूमिका में उनका समर्थन करते नजर आई।

राज्य-केंद्र की राजनीतिक द्वेषता में दोषियों पर उचित कार्यवाही का न होना, आग में घी का काम कर गया। परिणाम निकला वहाँ डॉक्टरों की हड़ताल और उनके द्वारा दिया जाने वाला नौकरी से सामूहिक इस्तीफा। देश भर में डॉक्टरों ने धरना प्रदर्शन कर उन्हें अपना समर्थन दिया। डॉक्टर मांग कर रहे हैं कि डॉक्टरों को भी सुरक्षा मिलनी चाहिए, जो उनका मूलभूत अधिकार भी है, लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। इतना बवाल हो जाने पर भी पुलिस-प्रशासन की निष्क्रियता भी कई प्रश्नों के घेरे में है। अदालत द्वारा मामले पर सत्तासीन सरकार को स्पष्ट निर्देशों के बावजूद सुरक्षा मुहैया न कराना लोकतन्त्र के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

राजनीतिक दलों द्वारा लोकतन्त्र में नैतिकता की बातें करना तथा मामले को जाति व क्षेत्रीयता का रंग देना निश्चय ही शर्मनाक है। सभी राजनीतिक दल अपने राजनीतिक नफे-नुकसान के आधार पर बयानबाजी करते नजर आ रहे है। देश भर में कई जगह डॉक्टरों ने हड़ताल कि घोषणा कर दी। चिकित्सालय ठप्प से नजर आने लगे। डॉक्टरों के पास अपनी वाजिब बात को कहने के लिए भी हड़ताल जैसे हथियार का उपयोग करना पड़े, यह दुर्भाग्य की बात है। लेकिन सत्तासीन सरकार यदि अड़ियल रुख अपना ले और सिर्फ राजनीतिक हानि-लाभ के तराजू में ही प्रकरण को तौलने लगे तो शायद डॉक्टरों के पास हड़ताल के अलावा विकल्प भी कम ही हैं। इस हठधर्मिता का खामियाजा तो आम आदमी को भुगतना पड़ता है।

उस व्यक्ति की हालत का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है, जिसका कोई अपना गंभीर रूप से बीमार है और उपचार के अभाव में अपने प्राण त्याग चुका है। क्या इसके लिए कानूनी तौर पर दोषी हड़ताल पर जाने वाले डॉक्टर होंगे अथवा हठधर्मी राजनेता? मुकदमा किस पर चलना चाहिए और किसकी अदालत में? क्या वर्तमान कानून हालात को तुरंत काबू करने में अक्षम है? क्या इक्कीसवीं सदी में भी यह मान लिया जाए कि यह देश तो ऐसे ही चलेगा और आम जनता इसी तरह राजनीति के पाटों में पिसती रहेगी?

(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं. इसमें शामिल तथ्य और विचार सनलाइट के नहीं हैं और सनलाइट इसकी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं लेता है)

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