लोकतंत्र के “चौथे स्तंभ” पर “पावर” का “वार”

विचार मंच

कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और मीडिया

इन चार को लोकतंत्र का स्तंभ माना गया है। और हम भली भांति जानते है कि चारों में से एक भी स्तंभ का संतुलन बिगड़ा तो मुश्किलें खड़ी हो सकती है।

 

परंतु जब उसी स्तंभ पर “पावर” का वार हो तो स्थिति क्या हो सकती है यह विचारनीय विषय है।

हम बात कर रहे हैं रिपब्लिक के संपादक अर्नब गोस्वामी के बारे में। हो सकता है लोगों को उनकी पत्रकारिता पसंद न आती हो, हो सकता है मीडिया के ही लोग अर्नब की शैली से खुश न हो लेकिन हमारे देश मे जब अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश विरोधी आवाजें बुलंद हो सकती है तो खबर दिखाने वाले न्यूज चैनल को उसी अभिव्यक्ति की आजादी क्यों नहीं? वह भी स्वतंत्र है सवाल पूछने के लिए और वह उसका अधिकार भी है। 

किसी फिल्मी दृश्य की तरह जिस प्रकार अर्नब को सुबह उनके घर से गिरफ्तार किया गया, एके 47 से लैस पुलिस उनके घर पहुँची उसपर सवाल उठना वाजिब है। सवाल यह है कि बिना किसी नोटिस या समन के उन्हें गिरफ्तार किया गया। बेशक कानून सर्वोपरि है पर उसे लागू करने का तरीका प्रश्न चिह्न खड़े करता है।

 

यह आज एक राज्य की पुलिस ने किया है अगर आज इसपर भी मीडिया चुप रहा तो कल कोई और राज्य भी यही करेगा। प्रतिस्पर्धा से ऊपर है गलत के लिए आवाज उठाना। अगर हम आज एक नही होंगे तो कल इसी तरह से हममे से ही कोई और का नंबर होगा। तब शायद बहुत देर हो चुकी होगी।

 

चिंता का विषय यह भी है कि कल अर्नब की गिरफ्तारी की खबर किसी भी दूसरे न्यूज चैनल ने नही दिखाई पर यही मीडिया रिपब्लिक का नाम टीआरपी घोटाले में आने पर उसे बहस का मुद्दा बनाकर सुबह से शाम उसपर डिबेट कर रहा था।

 

यह दिखाता है कि देश का एक मीडिया दूसरे मीडिया को सिर्फ और सिर्फ अपना प्रतिद्वंदी ही मानता है ना कि अपना साथी। पर अब समय आ गया है कि एकजूट होकर गलत के खिलाफ आवाज उठाएं।

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