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योग और मोक्ष

विचार मंच

इमं विवस्वते योग प्रोक्तवानहमव्ययम।विवस्वान्मनवे प्रात मनुरिन्दवावेतव्रवित “

राजेश कुमार शुक्ला

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा की सृष्टि के आरम्भ में उन्होंने ही इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा। अर्थात योग भी वेद की तरह भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा मानवजाति की उन्नति के लिए दिया गया दिव्य ज्ञान है।

योग के आचार्य और प्रणेता स्वयं भगवान शंकर है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान शंकर ने माता पार्वती को चौरासी लाख आसन बतलाए थे। माता पार्वती के अतिरिक्त योग का ज्ञान योगी मत्स्येन्द्रनाथ को भी प्राप्त हुआ क्योंकि जिस समय भगवान शिव माता पार्वती को योग का उपदेश दे रहे थे, जल की एक मछली ने भी सुन लिया। भगवान शंकर ने फिर मछली के ऊपर कृपा कर उसे मनुष्य बना दिया और वही योगी मत्स्येन्द्रनाथ हुए।

करीब दो हजार वर्ष पूर्व महर्षि पतंजलि ने प्रसिद्द ग्रन्थ “योग दार्शनम “की रचना कर योग को पुनः प्रतिष्ठित किया। महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंग बतलाए – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि। यम और नियम मनुष्य के तन मन को शुद्ध कर दुर्गुणों का सम्पूर्ण नाश करके मनुष्य को दीर्घायु, बुद्धिमान और शक्तिमान बनाते है जिससे मनुष्य के आचरण से समाज को कोई क्षति न हो।

मनुष्य एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक जानवर है, यदि उसपर नियंत्रण न रखा जाय तो स्वयं का और समाज का दोनों का नुकसान कर सकता है। यम और नियम के द्वारा उसकी भावनाओं और आदतों को शुद्ध किए बिना यदि उसकी लुप्त मानसिक शक्तियां जागृत हो जाय तो वह अनर्थ में प्रवृत होगी। अतः यम और नियम योग की तैयारी है।

आसनो का प्रभाव शरीर के स्थूल तत्वों पर ही नहीं पड़ता, बल्कि चेतन और अचेतन मन दोनों पर ही पड़ता है। योगासन में स्नायु -नियंत्रण होता है और सहनशक्ति बढ़ती है। योगासन योग की प्रथम सीढी है क्योंकि मनुष्य का प्रथम कर्तव्य अपने स्वास्थ्य की रक्षा करना है।

अथ आसनम हठस्य प्रथमाङ्गत्वादासनं  पूर्वमुछ्यते।

कुर्यात्तदासनं सथैर्यमारोग्यं छाङ्ग-लाघवम ||

व्यायाम और आसन में आसन प्रत्येक दृष्टिकोण से व्यायाम से उत्तम है। व्यायाम रोगी और कमजोर व्यक्ति नहीं कर सकते और न ही किसी रोग का उपचार ही कर सकते है। किन्तु योगासन छोटे से लेकर बूढ़े तक, स्वस्थ से लेकर बीमार तक सभी कर सकते है और रोगों के निवारण के लिए भी किया जा सकता है। योगासन में न उम्र का बंधन है और न शक्ति की सीमा। योगासन का प्रभाव डाइजेस्टिव, जॉइंट्स, नर्वस, सर्क्युलेटरी, रेस्पिरेटरी सभी पर पड़ता है। अर्थात यह एक तरह से lubricants की तरह शरीर के लिए कार्य करता है।

योगासन के साथ -साथ यदि खान -पान भी शुद्ध हो तो ज्यादा असर पड़ता है। रोगो के अधिकतर कारण अनियमित खान -पान, अपच्य और कब्ज है। भोजन का नियम है “चतुर्थांश-विवर्जितः ” पेट में एक चौथाई भाग खाली रखे, दो भाग भोजन, एक भाग जल और एक भाग प्राण वायु के लिए जगह खाली रखे।

भोजनमहितं विद्यात्पुनरस्योष्णी-कृतं रूक्षम् ।

अतिलवणमम्ल-युक्तं कदशन-शाकोत्कं वर्ज्यम् ॥

अधिक नमक, खट्टा, ठन्डे भोजन को गर्म करके खाना हानिकारक है। ये सब शरीर में Acidity को बढ़ाते है और Toxins को शरीर में जन्म देते है।

दृढ़ता, स्थिरता, स्थिर बुद्धि, आत्मसम्मान और आत्मविश्वास ये सब गुण योगासनों के अभ्यास से इसमें विकसित होते है। योगासनों से प्राणों का भी संयम और नियंत्रण होता है।

योग का विभाजन चार भागों में किया गया है,

(१) कर्मयोग

(२) भक्तियोग

(३)राजयोग

(४)ज्ञानयोग

इनमे से किसी की भी साधना मनुष्य का सम्पूर्ण विकास कराने के लिए मनुष्यत्व को देवत्व की और ले जाने के लिए तथा जीवन मुक्ति का अनुभव कराने के लिए है। अर्थात जीवन में रहते हुए भी कष्ट और बन्धनों से मुक्ति प्राप्त कर लेना। इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति धन, प्रतिष्ठा, स्त्री आदि लौकिक वस्तुओं से सम्मोहित है। योग की क्रियाओ के द्वारा इस सम्मोहन से मुक्त हुआ जा सकता है और पारलौकिक ज्ञान की प्राप्ति सहज उपलब्ध हो जाती है।

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।। ” अर्थात जब सभी प्रकार की चित्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है तो यह अवस्था सहज ही प्राप्त हो जाती है। योगसन जीवन सांसारिक जीवन के साथ -साथ ही चलना चाहिए। दिन के चौबीस घण्टो में केवल दो घण्टे यदि योग का अभ्यास किया जाय तो योग की ऊँची अवस्था तक पहुँचा जा सकता है।

मन में तृप्ति की भावना आने से ब्रह्मचर्य बनता है। इन्द्रियों का चंचल होना अतृप्ति का आभास है। योग साधना तृप्ति के भाव को उत्पन्न करता है। जिससे चित्त में स्थिरता आती है। चित्त के शान्त होने पर उसमे आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है और सुख की अनुभूति होती है।

जिस पदार्थ के मिलने पर सुख मिलता है और चित्त शांत हो जाता है उसका कारण पदार्थ नहीं चित्त का शांत होना है अर्थात चित्त का शांत रहना ही शाश्वत सुख है, क्योंकि कोई भी पदार्थ सुख -दुःख का कारक नहीं होता यह केवल मन की कल्पना है। यही बात श्री विष्णु पुराण में कही गयी है ।

जब व्यक्ति का चित्त शान्त होता है तो वह अंतःमुखी होते होने लगता है और अपने में ही रमण करता है।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।

जो प्राणी अपने आप में रमण करता है उस पर सुख -दुःख का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। ऐसे ही लोग श्रेष्ट योगी होते है क्योंकि संसार में प्रीति और संतुष्टि कभी स्थाई नहीं रहती।

सत्त्व-पुरुषयोः शुद्धि-साम्ये कैवल्यम्

अन्तःकरण जब सभी प्रकार की कामनाओं से मुक्त हो जाता है तब वह शुद्ध और सात्विक गुणों से मुक्त हो जाता है और उसपर किसी अशुद्धि का प्रवेश नहीं हो जाता है और वह सारी आकांक्षाओं से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है। योगवशिष्ट में महर्षि वशिष्ट न यही कहा है –

न मोक्षो नभसः पृष्ठे न पाताले न भूतले

सर्वाशासंक्षये चेतःक्षयो मोक्ष इतीष्यते

राजेश कुमार शुक्ला
श्री जैन विद्यालय
कोलकाता

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